परिचय

प्रभावक परिचय और रोमांचक इतिहास

गुजरात, भारत में पवित्र तीर्थ भूमि सौराष्ट्र में महातीर्थ शत्रुंजय गिरिराज से पालीताणा मार्ग पर जिनशासनरत्न पूज्य आचार्य श्रीजिनचंद्रसागर सूरिश्वरजी म.सा. और पूज्य आचार्यश्री हेमचन्द्रसागर सूरिश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से निर्मित “जैन आर्यतीर्थ अयोध्यापुरम” का इतिहास अत्यंत गौरवशाली और गौरान्वित करने वाला है।

इस पावन पुण्यधरा पर परमात्मा के प्रतिनिधि महात्मा कहें या साधु-संत, यह सबको प्रेरणा देकर अपना कौन सा संकल्प पूर्ण करते हैं – यह हमारी अल्पबुद्धि की समझ से परे है।

गौरवपूर्ण अतीत
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वि.सं. 2048 महासुद 5 यानि आगमो उद्धारक पूज्य श्री आनंदसागरसूरिश्वर जी म.सा. की 100 वीं तिथि। इस पुण्यतिथि को लक्ष्य में लेकर आगम विशारद पन्यास प्रवर गुरुदेव श्री अभयसागरजी म.सा. के कृपापात्र तथा पूज्य आचार्यदेव श्री अशोकसागरजी म.सा. के शिष्यरत्न बंधु बेलड़ी पूज्य आचार्यदेवश्री जिनचंद्रसागरसूरी जी म.सा. तथा पू. आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसागरसूरी जी म.सा. की प्रेरणा से उसी दिन सूरत से सम्मेत शिखर जी महातीर्थ का छ'रि पालक संघ निकला।

इस संघ में 200 से अधिक पूज्य साधु साध्वी जी पधारे थे। इतिहास बताता है कि गुजरात से ऐसा संघ कोई 250 साल बाद पहली बार निकला था।

यह संघ सम्मेत शिखरजी पहुंचने के बाद कलकत्ता आदि क्षेत्रों में चातुर्मास करने के बाद 140 से अधिक पूज्य साधु साध्वी भगवंत वापिस लौटते समय विहार करते हुए अयोध्या (उप्र) पधारे।

ऐसे स्फुरित हुआ संकल्प
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यह भूमि जैनों के 24 में से 5 तीर्थंकरों की जन्मभूमि है। यहां 120 कल्याणक में से 9 कल्याणक की घटना घटने से अति पवित्र होते हुए भी यहां तदनुरूप योग्य मन्दिर, योग्य प्रतिमाजी और धर्मशाला नहीं थी।

इससे पूज्य बंधु बेलड़ी आचार्यदेवश्री का हर्दय व्यथित हुआ और मन में संकल्प प्रगट हुआ कि इस तीर्थ का उद्धार करना है।

इसके लिए अगाध प्रयत्न हुए परन्तु गुजरात से यह क्षेत्र दूर सुदूर होने, जैन बस्ती नहीं होने तथा बाबरी मस्जिद के कारण बार बार विवाद सहित ऐसे अन्य कई कारण रहे, जिसके चलते तीन वर्ष के प्रयत्न के बाद भी सफलता हांसिल नहीं हो सकी।

परन्तु आचार्य देवश्री को हुई इस प्रेरणा को परमात्मा किस तरह पूरी करवाना चाहते थे, ये वे ही जानते थे... समय बीतता गया और संकल्प मजबूत होता गया...!

एक हादसा और एक चमत्कार!
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वि.सं. 2052 के चातुर्मास के लिए दोनों आचार्यश्री पालीताणा जम्बूद्वीप पधार रहे थे। तब वर्तमान में जहां अयोध्यापुरम तीर्थ मौजूद है, वहां से विहार करते समय सड़क के ऊपर बाँए से दाएँ एक विशालकाय सर्प जा रहा था।

अचानक तेजी से दोड़ते हुए आ रहे भारी वाहन के पहिये से वह सर्प कुचल गया और बुरी तरह से तड़पने लगा।

पूज्य आचार्यदेवश्री ने देखा कि इस हादसे में सर्प के शरीर के बीच का भाग वाहन से कुचल जाने से सड़क के बीच में चिपक गया है! सर्प अपना जीवन बचाने के लिए बुरी तरह से तड़फ रहा है... इस जीव का जीवन बचाने के लिए पूज्य आचार्यदेवश्री वहीं रुक गये और जैसे तैसे घायल, लहूलुहान सर्प को सावधानीपूर्वक सड़क से सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया।

जिसके बाद आचार्यदेवश्री ने उस जीव की सदगति के उद्देश्य से उच्चारणपूर्वक दस पन्द्रह मिनिट श्री नवकार महामंत्र सुनाया... पूज्य आचार्यदेवश्री से महामंत्र नवकार सुनते सुनते सर्प ने अपने प्राण छोड़ दिए।

उसी क्षण हुआ संकेत
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अब आप कहेंगे के इस घटना का अयोध्यापुरम तीर्थ से क्या सरोकार? लेकिन तीर्थ के निर्माण में इस घटना की पृष्ठभूमि का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है।

पालीताणा में जब पूज्य आचार्यदेवश्री चातुर्मास सम्पन्न करवाकर पुनः इसी रास्ते से आ रहे थे, तभी बराबर उसी घटना स्थल पर आये और यहां से उन्हें शत्रुंजय गिरिराज के दर्शन हुए। उन्होंने इसी स्थान से उनके भाव से दर्शन- वंदन किये।

इसी दौरान परमात्मा की लीला हुई और पूज्य आचार्यदेवश्री को एक दिव्य संकेत हुआ कि.. जो कार्य आपको अयोध्या में करना था, वह कार्य यहां और इसी भूमि पर करो और इस भूमि का नाम अयोध्यापुरम रखो...!

यह तो वही भूमि है..!
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तब पूज्य आचार्यदेवश्री को मन विचार आया कि इस भूमि के लिए यह संकेत क्यों आया? परन्तु पूज्य आचार्यदेवश्री को इस संकेत का रहस्य समझने में अधिक वक़्त नहीं लगा।

उन्हें तुरंत अंतर प्रेरणा हुई और तुरंत समाधान मिला कि - ओह! यह तो वही भूमि है, जहां हमारे मुख से नवकार सुनते सुनते उस सर्प ने प्राण छोड़े थे।

देव स्वरूप को प्राप्त हुए उसी सर्प का यह संकेत होना चाहिए और यह भूमि यानि वल्लभीपुर जिला भावनगर गुजरात का ही भाग है, अर्थात् शत्रुंजय गिरिराज की प्राचीन तलेटी।

इसी भूमि पर पूर्वधर श्री देवर्धिगणि सर्वप्रथम बार 500 आचार्यदेवों के साथ जिनगमों को लिपिबद्ध किया था… कैसी पवित्र और पावन भूमि…!!!

अयोध्यापुरम का उदगम बिंदु!
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बस यही दिव्य संकेत ही इस अयोध्यापुरम का उदगम बिंदु!

इस संकेतानुसार यहां तीर्थ निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ, तब बंधु बेलड़ी आचार्यदेवश्री को विचार आया कि अपने परम गुरुदेव पं. अभयसागर जी म.सा. श्री की भावना थी कि एक ऐसी विराट प्रतिमा का निर्माण करवाना कि जो पद्मासन मुद्रा में 23 फुट ऊंचाई वाली हो क्योंकि दादा आदिनाथ की 500 धनुष्य ऊँची काया थी।

अत: 1 धनुष्य = 1 अंगुल = 1 इंच लें तो 500 इंच होते है। पद्मासन मुद्रा में बैठी प्रतिमा लें तो 270 इंच = 23 फुट करीब होता है।

अत; पूज्य गुरुदेवश्री ने उस समय उतना बड़ा तैल चित्र भी बनवाया था परन्तु समय और संयोग ने साथ नही दिया। इसलिए विचार, तत्समय कार्य स्वरूप न ले सका। तो क्यों न हम अयोध्यापुरम में ऐसी ही विराट आदिनाथ दादा की प्रतिमा विराजमान करने का प्रयास करें?

इसके लिए इतनी बड़ी शिला खोज करवाई। जहां उद्देश्य पवित्र हो और संकल्प दिव्य हो तो प्रकृति भी सहयोग करने में कहां पीछे रहती है! अंत में फिर एक चमत्कार हुआ -जयपुर से 70 किमी दूर जीरी खदान में से शिला प्राप्त हुई।

इसी शिला को 150 पहिये के ट्राले से यहां लाकर दादा आदिनाथ जी की प्रतिमा का निर्माण किया गया।

“धर्म के रास्ते पर चल कर हमें अपने सामर्थ्य के अनुसार परमार्थ के कार्यों में हिस्सा लेना चाहिए ये सद्मार्ग है।”

अनेकों की श्रद्धा का अनन्य स्थान